निकलना खुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कुचे से हम निकले
मुहब्बत में नहीं है फर्क, जीने और मरने में
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
कहाँ मैखाने का दरवाज़ा, ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते है कल वो जाता था कि हम निकले
रंज से खूगर हुआ इंसा, तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसाँ हो गई
जी ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत,कि रात दिन
बैठे रहे तसव्वुरे – जाना किए हुए
रोने से और इश्क में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
करने गए थे उससे , तगाफुल का हम गिला
की एक ही निगाह , कि बस खाक हो गए —– ग़ालिब
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
वो जो हम में तुम में करार था तुम्हे याद हो कि न याद हो
वो ही वादा यानी निबाद का तुम्हे याद हो कि न याद हो
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कही जो आपका दिल भी मेरी तरह
उम्र तो सारी कटी इश्क-ए-बुता में ‘मोमिन’
आखिरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमा होंगे? —– मोमिन खां मोमिन
बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है
मेरी बरबादियो का हमनशीनो
तुम्हे क्या खुद मुझे भी ग़म नहीं है —– मजाज़ लुख्नावी
मोहब्बत मैं क्या-क्या मुक़ाम आ रहे हैं
की मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं
ये कह-कहके हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं, वो अब आ रहे हैं
दुनिया के सितम याद, न अपने ही वफ़ा याद
अब मुझको नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद
इक लफ्ज़-ए-मुहब्बत का अदना ये फ़साना हैं
सिमटे तो दिल-ए-आशिक, फैले तो ज़माना है
यह इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई, हँसने को ज़माना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों मैं ‘जिगर’ लेकिन
बिंध जाए सो मोती हैं, रह जाए सो दाना है —– जिगर मुरादाबादी
इबादतों का ज़िक्र है निजात की भी फ़िक्र है,
जूनून है सबाब का ख्याल है अज़ाब का,
मगर सुनो तो शैख़ जी
अजीब शै है आप भी
भला शबाबो-आशिक़ी
अलग हुए भी है कभी?
हम ही में थे न कोई बात याद न तुम को आ सके
तुमने हमें भुला दिया, हम न तुम्हे भुला सके —– हफीज़ जालंधरी
मत रोको इन्हें पास आने दो
ये मुझसे मिलने आए हैं
में खुद न जिन्हें पहचान सकूँ
कुछ इतने धुंधले साए हैं
हर इक रूह में इक ग़म छिपा लगे है मुझे
ये ज़िन्दगी तो बद-दुआ लगे है मुझे
दबाके आई है सीने में कौन-सी आहें
कुछ आज रंग तेरा साँवला लगे है मुझे —– जाँ निसार अख्तर
औरत ने जन्म दिया मर्दों को
मर्दों ने उसे बाज़ार बना दिया
एक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबो की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक
तंग आ चुके है कश्मकशे-ज़िन्दगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को बेदिली से हम
गर ज़िन्दगी में मिल गए फिर इत्तफाक़ से
पूछेगे अपना हाल तेरी बेबसी से हम
चन्द कलियाँ नशात की चुनकर
मुद्दतों महे-यास रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की बात सही
तुझसे मिलकर उदास रहता हूँ —– साहिर लुधियानवी
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे
और भी बहुत दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग —– फैज़ अहमद फैज़
कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कुए-यार में
न किसी कि आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके में वो एक मुश्ते -गुबार हूँ
मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिचड़ गया
जो चमन खिज़ा से उजड़ गया मैं उसी कि फस्ले-बहार हूँ
पड़े फातेहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चड़ाए क्यों
कोई आके शम्मा जलाय क्यों मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मैं नहीं हु नगमा- ए-ज़ाफिज़ा, मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बियोग की हूँ सदा, मैं दुखो की पुकार हूँ
कह दो इन हसरतो से, कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दागदार में
उम्रे-दराज़ मांगकर, लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में —– बहादुर शाह ज़फर
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब होके भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते की ‘फ़िराक’
है तेरा दोस्त, मगर आदमी अच्छा भी नहीं —– फिराक़ गोरखपुरी
मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया
मुझे सहल हो गई मंजिले वो हवा के रुख भी बदल गए
तिरा हाथ हाथ में आ गया सौ चिराग़ राह में जल गए —– मजरूह सुल्तानपुरी
मुहब्बत हो तो जाती है मुहब्बत की नहीं जाती
ये शोला खुद भड़क उठता है भड़काया नहीं जाता
फ़कीरी में भी मुझको मांगने से शर्म आती है
सवाली हो के मुझसे हाथ फैलाया नहीं जाता
मुहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मखसूस होते हैं
ये वो नगमा है जो हर साज़ पर गया नहीं जाता —– मखमूर देहलवी
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए
जिसे ले गई है अभी हवा, वो वरक था दिल की किताब का
कहीं आंसुओं से मिटा हुआ, कहीं आंसुओ से लिखा हुआ
कई मील रेत को काटकर कोई मौज फूल खिला गई
कोई पेड़ प्यास से मर रहा है नदी के पास खड़ा हुआ
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो
कभी हुस्न पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं कहीं बन संवर के कहीं चलूँ, मिरे साथ तुम भी चला करो
नहीं बेहिजाब वो चाँद-सा की नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मि-ए-शौक से बड़ी देर तक न तका करो —– बशीर बद्र
जानबूझकर सोच-समझ कर मैंने भुला दिया
हर वो किस्सा जो दिल को बहलाने वाला था —– शहरयार
दुनिया जिसे कहते है, जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है
बरसात का बादल तो, दीवाना है क्या जाने
किस राह से बचना है, किस छत को भिगोना है —– निदा फ़ाज़ली
रंजिश ही सही, दिल ही दुखने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
कुछ तो मिरे पिन्दार-ए-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही, फिर भी कभी तो
रस्म-ओं-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-खुशफहम को तुझसे हैं उम्मीदे
ये आखिरी शम्मएँ भी बुझाने के लिए आ —– अहमद फ़राज़
दयारे-दिल की रात में चराग-सा जला गया
वो मिला नहीं तो क्या हुआ शक्ल तो दिखा गया
वक़्त अपना भी आयेगा ‘नासिर’
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी
वो दोस्ती तो खैर अब नसीबे-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी-छोटी रंजशों का लुत्फ़ भी चला गया
जुदाइयों के ज़ख़्म वो ज़िन्दगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई, मुझे भी सब्र आ गया
पुकारती है फ़ुर्सतें कहाँ गई मुहब्बतें
ज़मीं निगल गई उन्हें की आसमान खा गया
गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अलम-कशो उठो की आफ़ताब सर पे आ गया —– नासिर काज़मी
इसको मज़हब कहो की सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले —– कैफ़ी आज़मी
शाम से ही बुझा-सा रहता है
दिल हुआ है चिराग मुफलिस क
मुझे काम रोने से अक्सर नासेह
तू कब तक मिरे मुह को धोता रहेगा
दिखाई दिये यु कि बेखुद किया
हमें आपसे भी जुदा कर चले
कहे क्या जो पूछे कोई हमसे ‘मीर’
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले —– मीर ताकी मीर
लाई हयात, आये, कज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले
अब तो घबरा के ये कहते है कि मर जाएँगे
मरके भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे
हम नहीं वो जो करें खून का दावा तुम पर
बल्कि पूछेगा खुदा तो मुकर जाएँगे
ज़ौक जो मदरसे के हैं बिगड़े हुए मुल्ला
उनको मैखाने में ले आओ, संवर जाएँगे
लायी हयात आए, कज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करे जो काम न बे दिल-लगी चले —– इब्राहीम मोहम्मद जोक
ज़िन्दगी है या कोई तूफान है
हम तो इस जीने के हाथों मर चले
तोहमते चंद अपने जिम्मे धर चले
किस लिए आए थे हम क्या कर चले ——–
हम तुझसे किस हवस की फलक जुस्तुजू करें
दिल ही नहीं रहा है जो कुछ आरजू करें —– ख्वाजा मीर दर्द
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी कसम से आपका ईमान तो गया
दिल लेके मुफ्त कहते हो कुछ काम का नहीं
उलटी शिकायते हुई, एहसान तो गया —– दाग़ देहलवी
किससे जाकर मांगते दर्दे-ए-मुहब्बत की दवा
चारागर अब खुद ही बेचारे नज़र आने लगे
चारागर अब खुद ही बेचारे नज़र आने लगे
आँख वीराँ, दिल परीशाँ ज़ुल्फ़ बरहम लब ख़ामोश
दूर तक क्या चल सकेंगे राह-ए-उलफ़त में ‘शकील’
जब अभी से तुम थके हारे नज़र आने लगे —– शकील बादायूनी
सितारों से आगे जहाँ और भी है
अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी है
तू शाही है परवाज़ है काम तेरा
तिरे सामने आसमां और भी है
यूनान-ओ-मिस्त्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी नामो-निशाँ हमारा
कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे-ज़मा हमारा
‘इकबाल’ कोई मरहम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्दे-निहां हमारा
अपनों से बैर रखना तुने बुतों से सीखा
जंगों-जदल सिखाया वाइज़ को भी खुदा ने
तंग आके मैंने आखिर दैरों-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ो, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मुरतो में समझा है तू खुदा है
ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है —– इकबाल
मैं मैंकदे की राह से होकर निकल गया
वरना सफ़र हयात का काफ़ी तवील था
मएखाना-ए-हस्ती में अकसर हम अपना ठिकाना भूल गए
या होश से जाना भूल गए या होश में आना भूल गए
आए थे बिखेरे जुल्फों को एक रोज़ हमारे मरकद पर
दो अश्क तो टपके आँखों से दो फूल चडाना भूल गए
चाह था की उनकी आँखों से कुछ रंगे-बहाराँ ले लीजे
तरकीब तो अची थी लेकिन वो आँख मिलाना भूल गए —– अब्दुल हमीद अदम
मैं अपने दिल से निकालूं ख्याल किस-किसका
जो तू नहीं तो कोई और याद आए मुझे
उस अदा से भी हूँ मैं आशना, तुझे जिस प’ इतने ग़रूर है
मैं जियूँगा तेरे बगैर भी, मुझे ज़िन्दगी का शाऊर है
न हवस मुझे मै-ए-नाब की, न तलब सवा-औ-सहाब की
तिरे चश्म-ए-नाज़ की खैर हो, मुझे बे पिए ही सरूर है
जो समझ लिया तुझे बावफा तो फिर इसमें तेरी भी क्या खता
ये खलल है मेरे दिमाग़ का, ये मिरी नज़र कस कसूर —– क़तील शिफ़ाई
मुझको तो होश नहीं, तुमको खबर हो शायद
लोग कहते है की तुमने मुझे बर्बाद किया
गुंचे ने कहा की, “इस चमन में बाबा
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है” —– जोश मलीहाबादी
ऐसे मौसम भी गुज़ारे हमने
सुबहें जब अपनी थी शामे उसकी
दूर रह के भी सदा रहती हैं
मुजको थामे हुए बाँहें उसकी
नींद इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उसकी
अब कैसी परदादारी खबर आम हो चुकी
माँ की रिदा तो दिन हुए नीलम हो चुकी —– परवीन शाकिर
Hai ajeeb shahr ki zindagi na safar raha na qayaam hai
Kahin karobar si dophar kahin badmizaj si shaam hai
Kahan ab duaon ki barkatein wo naseehatein wo hidayatein
Ye zaroraton ka khuloos hai ye mataalbon ka salaam hai
Yun hi roz milne ki aarzo badi rakh-rakhaao ki guftgu
Ye sharaafatein nahin be gharaz use aapse koi kaam hai
Wo dilon mein aag lagaayega mein dilon ki aag bujhaunga
Use apne kaam se kaam hai mujhe apne kaam se kaam hai
Na udaas ho na malaal kar kisi baat ka na khayal kar
Kai saal baad mile hain ham tere naam aaj ki shaam hai
Koi naghma dhoop key gaon sa koi naghma shaam ki chhaon sa
Zara in parindon se poochhna ye kalaam kis ka kalaam hai —– Bashir Badr
(Some Meanings:
Qayaam -> Stay, destination
Khuloos -> Candour
Rakh-rakhaao -> Discipline, dignity
Be-garaz -> Selfless
Malaal -> Grief
Kalaam -> Conversation)
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